Tuesday, November 26, 2024
कविताएं

जयंती पर विशेष : साहित्य की अप्रतिम शख्सियत अमृता

वैसे तो अमृता प्रीतम पंजाबी लेखिका हैं लेकिन हिंदी भाषाके पाठकों में भी वे खासी लोकप्रिय हैं। वे हिंदी फिल्मों की कई हिरोइन से भी अधिक खूबसूरत थीं । उनके साहित्य में भी सौंदर्य की झलक मिलती है। अमृता को जानना है तो उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट पढ़ सकते हैं। काफी रोचक है उनकी जीवनयात्रा।कागज ते कैनवास भी पढ़ने लायक है। साहिर लुधियानवी जैसे बेहतरीन शायर से मुहब्बत, लेकिन साहिर हिम्मत नहीं कर सके। इस वजह से दोनों शादी के बंधन में नहीं बंध पाए। ये टीस दोनों के लेखन में देखी और महसूस की जा सकती है। उसके बाद इमरोज से प्रेम। इमरोज की लाजवाब पेंटिंग में अमृता और भी आकर्षक लगती हैं।
अमृता की एक कविता पेश हैं उम्मीद है आप लोगों को भी पसंद आएगी….

ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया…
फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा…
वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं
अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है…
पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है..।l

अमृता साहिर की अधूरी प्रेम कहानी
अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत करती थीं । उनकी साहिर से पहली मुलाकात साल 1944 में हुई थी। वह एक मुशायरे में शिरकत कर रही थीं और वो साहिर से यहीं मिली। वहां से लौटने के दौरान बारिश हो रही ।अपनी और साहिर की इस मुलाकात को अमृता कुछ इस कदर बयां करती है।

” मुझे नहीं मालूम के साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी या उनकी खामोश नजर का कमाल था लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे उनकी तरफ खींच लिया। आज जब उस रात को मुड़कर देखती हूं तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क का बीज डाला जिसे बारिश खी फुहारों ने बढ़ा दिया।”

सिगरेट की नहीं साहिर की लत थी
अपनी जीवनी ‘रसीदी टिकट’ में अमृता एक दौर का जिक्र करते हुए बताती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और लगातार सिगरेट पिया करते थे। अमृता को साहिर की लत थी। साहिर का चले जाना उन्हें नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था। अमृता का प्रेम साहिर के लिए इस कदर परवान चढ़ चुका था कि उनके जाने के बाद वह साहिर के पिए हुए सिगरेट की बटों को जमा करती थीं और उन्हें एक के बाद एक अपने होठों से लगाकर साहिर को महसूस किया करती थीं। ये वो आदत थी जिसने अमृता को सिगरेट की लत लगा दी थी।

यह आग की बात है, तूने यह बात सुनाई है
यह जिंदगी की वही सिगरेट है,जो तूने कभी सुलगाई थी
चिंगारी तूने दी थी, यह दिल सदा जलता रहा
वक्त कलम पकड़ कर, कोई हिसाब लिखता रहा
जिंदगी का अब गम नहीं, इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूं, अब और सिगरेट जला ले।

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

साहिर के लिखे गीत, अमृता के लिए उनकी मोहब्बत बयां करते हैं। खास कर कभी कभी फिल्म का यह गीत कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए। सिर्फ अमृता ही उनकी सिगरेट नहीं संभलाती थी बल्कि साहिर भी उनकी चाय की प्याली संभाल कर रखते।एक बार की बात है साहिर से मिलने कोई कवि या मशहूर शायर आए हुए थे। उन्होंने देखा साहिर की टेबल पर एक कप रखा है जो गंदा पड़ गया है। उन्होंने साहिर से कहा कि आप ने ये क्यों रख रखा है? और इतना कहते हुए उन्होंने कप को उठा कर डस्टबीन में डालने के लिए हाथ बढाया कि तभी साहिर ने उन्हें तेज आवाज में चेताया कि ये अमृता की चाय पीया हुआ कप है इसे फेंकने की गलती न करें।

इमरोज बने अमृता के जीवन साथी
प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है. पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता, शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं। खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है। किसी ऐसी स्त्री से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना, जिसके लिए यह पता हो कि वह आपकी नहीं है। इमरोज यह जानते थे और खूब जानते थे। उस आधे अधूरे को ही दिल से कुबूलना और पूरा मान लेना हो सकता है ठीक वही हो जिसे बोलचाल की दुनियादार भाषा में प्रेम में अंधे होना कहा जाता हो. पर प्रेम का होना भी तो यही है। अमृता अपने और इमरोज के बीच के उम्र के सात वर्ष के अंतराल को समझती थी।अपनी एक कविता में वे कहती भी हैं, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’ जब इमरोज और अमृता ने साथ साथ रहने का निर्णय लिया तो उन्होंने इमरोज से कहा था, ‘एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी तुम मुझे अगर चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं…मैं तुम्हें यहीं इंतजार करती मिलूंगी। इसके जवाब में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा, ‘हो गया अब तो…’ इमरोज के लिए अमृता का आसपास ही पूरी दुनिया थी। अमृता जिस सपने के राजकुमार की खोज में पूरी उम्र भटकती रहीं, वह शक्ल इमरोज की थी। इस दुनिया से जाते-जाते अमृता इस बात को जान गई थीं इसीलिए उनकी अंतिम नज्म ‘मैं तुम्हें फिर मिलूंगी’ इमरोज के नाम थी, केवल इमरोज के लिए। इमरोज जैसा सुलझा हुआ इन्सान मिलना बहुत दुर्लभ है। वे अमृता के टिपिकल पति बनने की कोशिश नहीं करते, वे साथ रह कर ही खुश है। इस रिश्ते को कोई नाम देने की जरूरत महसूस नहीं करते। वैसे भी हमारा समाज आज भी बगैर शादी के स्त्री पुरुष को साथ रहने को सही नहीं मानता है। वहीं अमृता और इमरोज ने कई साल पहले ये साहस दिखाया था। उन्होंने इस बात की फिक्र नहीं की कि लोग क्या कहेंगे।

एक छत के नीचे पर अलग अलग कमरों में रहे
परंपरा ये है कि आदमी-औरत एक ही कमरे में रहते हैं। हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे। वो रात के समय लिखती थीं, जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो।
उस समय मैं सो रहा होता था. उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी। वो ख़ुद तो उठकर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं। इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता. वो लिखने में इतनी खोई हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला।

साहिर से प्यार की फिक्र नहीं
इमरोज़ अक्सर अमृता को स्कूटर पर ले जाते थे। अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं.। .. चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया। इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूँ। इमरोज ने खुद कैलीग्राफी कर साहिर का नाम लिख कर घर में रखा हुआ था।

नवीन शर्मा का लेख

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *