मंगलेश डबराल: बुझ गयी ‘पहाड़ पर लालटेन’
जन्म : 16 मई, 1948
निधन : 09 दिसंबर, 2020
हिंदी भाषा के प्रख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल का बुधवार को निधन हो गया. वह एक असाधारण कवि थे. सचमुच के बड़े कवि. उनके निधन से पहाड़ पर लालटेन बुझ गयी है. 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कवियों की जिस पीढ़ी की रचना की उनमें मंगलेश डबराल अग्रिम पंक्ति में शुमार रहे.
कुछ दिन पहले लिखा था ‘बुखार’ का यह किस्सा : मंगलेश डबराल ने अपने फेसबुक अकाउंट पर 23 नवंबर को बुखार का एक किस्सा शेयर किया था. उन्होंने लिखा था, बुखार की दुनिया भी बहुत अजीब है. वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है. वह आपको इस तरह झपोड़ती है जैसे एक तीखी-तेज हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो. वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता. बहरहाल, जब मेरा बुखार उतरने लगता, तो मुझे उसकी आहट सुनाई देती. वह सरसरा कर उतर रहा है, बहुत आहिस्ते, जैसे सांप अपनी केंचुल उतारता है. केंचुल उतरने के बाद लगता शरीर बहुत हल्का हो गया है और आने वाले बुखारों को झेलने में समर्थ है.
पांच काव्य संग्रह हो चुके हैं प्रकाशित : समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित नामों में शुमार मंगलेश डबराल के पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं. ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’ और ‘नये युग में शत्रु’. इसके अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह ‘लेखक की रोटी’ और ‘कवि का अकेलापन’ के साथ ही एक यात्रावृत्त ‘एक बार आयोवा’ भी प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें साहित्य अकादमी, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, शमशेर वर्मा सम्मान, पहल सम्मान आदि सम्मान प्राप्त हुए. मंगलेश डबराल ने अंतिम समय तक अपना लेखन जारी रखा. गद्य लेखन के अलावा उन्होंने साहित्यिक अनुवाद किये, तो पत्रकारीय लेखन भी खूब किया और यात्रा वृतांत भी लिखे. संगीत के रागों पर लिखा तो नाट्य समीक्षा भी की.
भूलने का युग
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ वह पता वह नाम
जहां ज्यादा तनख्वाहें हैं
ज्यादा कारें ज्यादा जूते और ज्यादा कपड़े हैं
बाजार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीजो को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ्तर
याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए
हमारे समय का एक दरिंदा कहता है –
मेरा दरिंदा होना भूल जाओ
भूल जाओ अपने सपने देखना
मैं देखता रहता हूं सपने तुम्हारे लिए।
समय नहीं है
मेरी जन्मभूमि मेरी पृथ्वी
तुम्हारे भीतर से किसी नदी किसी चिड़िया की आवाज़ नहीं आती
तुम्हारे पेड़ हवा देना बंद कर रहे हैं
मैं सिर्फ बाजार का शोर सुनता हूं या कोई शंखनाद सिंहनाद
और जब तुम करीब से कुछ कहती हो
तो वह कहीं दूसरे छोर से आती पुकार लगती है
मैं देखता हूं तुम्हारे भीतर पानी सूख चुका है
तुम्हारे भीतर हवा खत्म हो चुकी है
और तुम्हारे समय पर कोई और कब्जा कर चुका है।
:प्रभात खबर से साभार: